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काव्यालोचना / शिरीष कुमार मौर्य
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एक रास्ते पर मैं रोज़ आता-जाता रहा
अपनी ज़रूरत के हिसाब से उसे बिगाड़ता-बनाता रहा
अब उस पर श्रम और सौन्दर्य खोजने का एक काम लिया है
सार्थक-निरर्थक होने के फेर में नहीं पड़ा कभी
जीवन और कविता में जो कुछ जानना था
ज़्यादातर अभिप्रायों से जान लिया है