भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने ही कंधों पर / पुष्पिता

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:46, 27 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पुष्पिता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत बेचैन रहते हैं सपने
दिमाग के कैदखाने में जकड़ गए हैं सपने।

युद्ध की ख़बरों से सैनिकों का खून
फैल गया है मन-मानस की वासंती भूमि पर।

बम विस्फोटों के रक्त रंजित दृश्यों ने
सपनो के कैनवास में रँगे हैं खूनी दृश्य
अनाथों की चीख पुकारों से भरे हैं कान
संगीत की कोई धुन अब नहीं पकड़ते हैं कान।

छल और फरेब की घटनाओं ने
लील लिया है आत्म विश्वास
एक विस्फोट से बदल जाता है शहर का नक्शा
विश्वासघात से फट जाता है संबंधों का चेहरा
कि जैसे अपने भीतर से उठ जाती है अपनी अर्थी
अपने ही कंधों पर।