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नंगी पीठ पहाड़ों की / राजेन्द्र गौतम
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नंगी पीठ पहाड़ों की ।
बादल ने पफटकारे कोड़े
औचक ही जब
जलधारा के
खाल बैल की
सिहरा करती ज्यों
पाकर चुभन अनी की
सिहर उठी यों विन्ध्याचल में
नंगी पीठ पहाड़ों की ।
लप-लप बिजली की तलवारें
दसों दिशाएँ भाँज रही हैं
रणभेरी तब
बजी दूर से
विंध्याचल में फैल गई जब
तड़-तड़ गूँज
नगाड़ों की
नंगी पीठ पहाड़ों की ।
साखू के
गहरे जंगल में
मेघ गीत गाती है
विंध्याचल कन्याएँ
दे-दे कर ताली
दूर गए वे तपते दिन
दूर बहुत हैं बातें अब
उन ठिठुराते जाड़ों की
सिहर उठी है
नंगी पीठ पहाड़ों की ।