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राजरोग से खुद जर्जर / राजेन्द्र गौतम

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गन्दे कूड़ेदानों को भी
क्यों कहते हो महानगर ।

फूलों वाले
गमले महकें
हर बँगले के अगवारे
सब ऋतुओं की
सत्यकथाएँ
कहते हैं पर पिछवारे
मूल्यों की
भ्रूणों-सी हत्या
त्यक्त पड़े वे मलबे पर ।

ख़ुशबू वाली
पोशाकों में
सजे हुए मैले तन-मन
करते सब को
सिद्ध नपुंसक
दीवारों के विज्ञापन
कहाँ रसायन बाँटेंगे ये
राजरोग से ख़ुद जर्जर ।

यों तो
नैतिक ही दिखता है
धोखे का भूरा दल-दल
थोड़े-से
खद्दर में लेकिन
छिपा हुआ पूरा चम्बल
संसद से
सड़कों तक सड़ता
आदर्शों का कचराघर ।