Last modified on 5 जून 2014, at 13:47

पाला ढाता ग़जब कहर है / राजेन्द्र गौतम

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:47, 5 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रात अभी यह तीन पहर हैं ।

बर्फ़ हुई गर्मी धूनी की
‘पौ-फटनी’ है दूर
गुड़ी-मुड़ी काया रल्दू की
ठिठुरन को मजबूर
रोम-रोम में शीतलहर हैं ।

मुखिया खिला-खिला रहता है
क्या-क्या ख़बरें बाँच
तब रल्दू के सपनों में भी
कौंधा करती आँच
अब सपनों में घुला ज़हर है ।

औसारे में
सबद-रमैनी-आल्हा
गुमसुम हैं
बुझे हुए चूल्हों में
पिल्ले दुबकाए दुम हैं
पाला ढाता
ग़जब कहर है ।