चिंचपोलकी से दृश्य / दिलीप चित्रे
एक गन्दलाया हुआ सूरज उगता है टेक्सटाइल मिल के पीछे से
मैं अपने भयानक स्वप्न से रेंग कर निकलता हूं और लड़खड़ाता हुआ
बेसिन की तरफ जाता हूँ । फिर मैं शौच में चैन से हल्का होता हूँ
जबकि परेल रोड क्रॉस लेन के मेरे वंचित देशवासी भायखला गुड्स डिपो की
पत्थर की दीवारों से लग कर मल त्यागते हैं ।
इस गली से होकर मेन रोड तक जाने के ख़याल से ही में काँप जाता हूँ। सैकड़ों मज़दूर,
रात की शिफ़्ट से लौटने लगे हैं, रेलवे लाइन पार करके ।
बस स्टॉप पर भीड़ बढ़ चुकी है। मैं सुबह का अख़बार पढ़ने लगता हूँ
और अपने नंगे मन को विश्व भर की घटनाओं से ढँक लेता हूँ । सीलिंग-फैन घिरघिरा कर चलता है, लेकिन मुझे पसीना आता रहता है ।
मैं साँस लेता हूँ बॉम्बे गैस कम्पनी के छोड़े गए सल्फ़र डाइऑक्साइड में
जिसमें घुले होते हैं कपास के रेशे और कार्बन के कण जो निकलते हैं उन मिलों से
जो लाखों लंगोटों को ढँकते हैं। फिर मैं दाढ़ी बनाकर स्नान करता हूँ
सभी अछूतों को अपने मन से निकाल कर, छुआछूत के प्रदूषण के डर से, बाहर निकलते हुए
मैं इस्तेमाल किए हुए कॉन्डोम और सिगरेट के मुड़े-तुड़े डिब्बे को
कूड़े में फेंक दूँगा... और अर्जुन की तरह,
जो अनिच्छा से रथ पर सवार हो रणभूमि में गया था, मैं टैक्सी ले कर
नारीमन प्वाइण्ट की मैनहटन जैसी अवास्तविकता में जाऊँगा। वहाँ मैं भारत का भाग्य गढ़ूँगा
अपनी बेदाग प्रतिभा से, मैं टैक्सी की सवारी करूँगा
और बिना पलक झपकाए गुज़रूँगा विक्टोरिया गार्डन ज़ू की बदल से ।
भायखला ब्रिज मुझे कविता की पहली पंक्ति देगा,
और रास्ते में क्रिश्चन, मुस्लिम और यहूदी मुझ में समकालीन भारतीय संस्कृति की
एक विलक्षण आलोचना को प्रेरित करेंगे । और तय है कि मैं देखूँगा तक नहीं उन
सभी
कबाड़ की, चाय की दुकानों को, रेस्त्राँ को, और बाज़ारों को
जिनके टेढ़े-मेढ़े रास्तों से मैं गुज़रूँगा, बड़े सुकून से निकलूँगा
कला संस्थान, अंजुमन-ए-इस्लाम, दि टाइम्स ऑफ इण्डिया,
बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन और विक्टोरिया टर्मिनस की बगल से ।
अगर मेरी नज़र फ्लोरा फाउण्टेन या बॉम्बे हाईकोर्ट पर पड़ी भी तो
वह एक अन्यमनस्क अवलोकन ही होगा ।
और अगर बॉम्बे यूनिवर्सिटी के क्लॉक टावर और इमारतों को मैं देखता हुआ लगूँ
भी तो
वह उस बुढिय़ा चुड़ैल की तरफ
एक दूषित मानसिकता के किसी पुराने छात्र की खीज भरी नज़र ही होगी
पर इन सब के बावजूद है मेरे चैन की साँस
जो यहाँ उन लाखों लोगों की भद्दी भीड़ के थोड़ी देर तक नज़र से ओझल होने से
मिलती है ।
कुछ संस्कृति सम्भव है उस आधे वर्ग मील में
जहाँ इण्डिया की दीवार चटक कर खुल जाती है और समुद्र नज़र आने लगता है ।
चिंचपोकली में, जब शाम को लौट आता हूँ,
मैं षड्यन्त्र रचता हूँ स्त्रियों को फाँसने का, बलात्कार का, योजना बनाता हूँ कन्नी काटने के मास्टरपीस की, लाउडस्पीकर मुझ पर चिल्लाते हैं ।
खटमल मुझे काटते हैं । तेलचट्टे मेरी आत्मा पर मण्डराते हैं ।
चूहे इधर उधर दौड़ते हैं मेरे अध्यात्म पर, मच्छर मेरे गीतों में गाते हैं
छिपकिली रेंगती है मेरे धर्म पर, मकड़े फैल जाते हैं मेरी राजनीति पर ।
मैं खुजाता हूँ, मैं कामोत्तेजित हो जाता हूँ, मैं शराब पीता हूँ । मैं पी कर चूर हो जाना चाहता हूँ ।
और मैं ऐसा करता भी हूँ। यह आसानी से होता है चिंचपोकली में,
जहाँ, हिन्दुओं के किसी लघु देवता की तरह, मैं धुत्त हूँ
अपने पूजने वालों के दुखों में और अपनी
विजयी नपुंसकता में ।