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भोरई केवट के घर / त्रिलोचन

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भोरई केवट के घर

मैं गया हुआ था बहुत दिन पर

बाहर से बहुत दिनों बाद गाँव आया था

पहले का बसा गाँव उजड़ा-सा पाया था

उससे बहुत-बहुत बातें हुईं

शायद कोई बात छूट नहीं सकी

इतनी बातें हुईं


भीतर की प्राणवायु सब बाहर निकाल कर

एक बात उसने कही

जीवन की पीड़ा भरी

बाबू, इस महंगी के मारे किसी तरह अब तो

और नहीं जिया जाता

और कब तक चलेगी लड़ाई यह ?


ऎसा जान पड़ा जैसे भोरई निरुपाय और असहाय

आकण्ठ दुख के अभाव के समुद्र में पड़ा हुआ

उसकी विकट लहरों के थपेड़े सह रहा था


इस अकारण पीड़ा का भोरई उपचार कौन-सा करता

वह तो इसे पूर्व जन्म का प्रसाद कहता था

राष्ट्रों के स्वार्थ और कूटनीति,

पूंजीपतियों की चालें

वह समझे तो कैसे !

अनपढ़ देहाती, रेल-तार से बहुत दूर

हियाई का बाशिन्दा

वह भोरई