मिली नौकरी चूहे जी को,
बस के कंडेक्टर की|
लगे समझने बस को जैसे,
खेती हो वह घर की|
बस में बैठे सभी मुसाफिर,
उनसे टिकिट मंगाते|
पैसे तो वे सबसे लेते,
पर ना टिकिट बनाते|
पूछा लोगों ने भैयाजी
कैसी बेई मानी|
सरकारी पैसे से क्यों ये ,
करते छेड़ाखानी|
बोला... टिकिट बनाता तो हूं,
तुम तक पहुंच न पाते|
कागज़ खाने की आदत से,
टिकिट हमीं खा जाते|
उत्तर सुन, लोगों ने पूछा,
नोट क्यों नहीं खाये|
लिये टिकिट के रुपये हैं तो,
उनको कहां छुपाये|
बगलें लगा झांकने चूहा,
छोड़ छाड़ बस भागा|
बिल्ली पीछे दौड़ पड़ी तो ,
मारा गया अभागा|