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पानी बहुत उदास है / प्रेमशंकर शुक्ल

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पानी बहुत उदास है
बोेतल में पानी का चेहरा उतरा हुआ है
याद आ रही हैं उसे अपनी लहरें
वह पार्वती नदी याद आ रही है
जिसका वेग उसे बाँधता था

सोचा था उसने किसी मटके में हो वह खूब ठण्‍डाएगा
और बुझाएगा किसी अतिथि की प्‍यास
अब भी वह सोच रहा है मन ही मन :
काश ! उसे चुल्‍लू से पीता कोई भर प्‍यास
या काम-धन्‍धे से लौट
लोटे से पी जाता एक साँस,
गिलास में भर जाता जब वह पूरम्‍पूर
उसे पीने के बाद कहा जाता
कितना मीठा है इधर का पानी !

बाज़ार में बिकने से वह बेहद ख़फ़ा है
घुटन-ख़ामोशी ने कर दिया है उसे अधमरा

सोचता जा रहा है पानी
और बढ़ती जा रही है उसकी उदासी
उसके समझ में नहीं आ रहा
कि उस में भी रह गया है अब कितना पानी

क़स्‍बे की सड़क पर चमचमाती इम्‍पोर्टेड कार
खड़ी हो चुकी है
जिसके भीतर से ही तैरती आवाज़ आ रही है --
‘विसलरी वाटेल मिलेगी क्‍या इधर'
और दूकानदार पूरे ज़ोर से कहता जा रहा है --
‘जी साहब जी' !!!!