Last modified on 30 जून 2014, at 03:55

एक दिन ! / प्रेमशंकर शुक्ल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:55, 30 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमशंकर शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

धरती पर बढ़ रहा तापमान
एक दिन सोख लेगा
सारी बर्फ़, झरने, झील, नदियाँ

झुलस जाएँगे जंगल-पहाड़
खेत-खलिहान

दिशाएँ दिखेंगी मुँहझौंसी

अपने ही पानी में
उबल पड़ेगी हमारी देह
और बिना रात के ही
दिनमान आँखों में बैठ जाएगी रतौंधी

जिनकी करतूतों से भूमण्‍डल का पारा हो रहा है गरम
घोर कलयुग ! कि टर्की में खूब बहाया उन ने घडि़याली आँसू
ग्‍लोबल वार्मिंग कि जबरा देश लबरा बयान दे रहे हैं
अमरीकी बघनखा का आतंक है․․․

वैसे भी कितने वर्षों से
बीमार चल रही है बारिश

दिनोंदिन धरती पर बढ़ रही है
कार्बनडाइआक्‍साइड गैस
और तेज़ी से बिगड़ता जा रहा है
प्राकृतिक-सन्तुलन

पृथ्‍वी के नाड़ी-वैद्य
चीख़-चीख़ कर कह रहे हैं
कि बढ़ता तापमान
चेतावनी है-कि धरती को घेरने वाला है अब
बेमियादी बुखार !!