भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने जो सोचा था / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:22, 26 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=ताप के ताये हुए दिन / त्रिलोचन }} मैंने...)
मैंने जो सोचा था
वह नहीं हुआ
सोचा था, सब मेरे है
वे सब क्यों मुझको
जैसे अहेर घेरे हैं;
आसमान से
बचने की मांगी दुआ
हैं मानव इतने सारे
क्यों ये असहाय हुए
अलग अलग हारे
चिन्ताओं ने
मेरे ही मन को छुआ
जैसे हो चलना तो है
भले कुछ न हो संभर
वही कम नहीं है जो है
एक ओर खाई है
एक ओर कुँआ