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तुम से बोलते-बतियाते / प्रेमशंकर शुक्ल

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बड़ी झील !
तुम से बोलते-बतियाते
मेरी जुबान की मैल छूट जाती है
और धुल जाते हैं सारे दाग-धब्‍बे

कितना सारा मौन छुपा रखा है मैंने
तुम्‍हारे पानी में
एक दिन निकाल कर सारा मौन
उसे कहने में लाऊँगा
फिर भी जो कह न पाऊँगा
उसे ज़रूर तुम्‍हारे कान में
फुसफुसाऊँगा