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आकाश एक ताल है / प्रेमशंकर शुक्ल

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आकाश एक ताल है
हम जहाँ भी हैं उसके
घाट पर हैं । अपने संकल्‍प-विकल्‍प को
तिलक देते हुए

आकाश एक ताल है
महाताल --
जिसकी गगन-गुफा से अजर रस झरता है
कबीर का
(योगी जिसे पीता है)

आकाश एक ताल है
सुबह-सुबह जिसके एक फूल से
उजाला फैलता है । और रात में
जिसमें असंख्‍य कुमुदिनी के फूल
खिलते हैं जो हमारी आँखों के तारे हैं ।
जब-तब एक चन्‍द्रमा उगता है
चाँदनी जिसकी ख़ुशबू है ।

आकाश एक ताल है
हमारे नयन-गगन में बहता हुआ
हँसी से जो उजला होता है
और ख़ुशी से निर्मल
ज़िन्‍दगी के आब से जिसे लगाव है असीम

आकाश एक ताल है
जन्‍म लेते हैं जिसमें रंग-सप्‍तक
और वहीं खिलते-खेलते रहते हैं । सरगम आकाश से चलकर
आकाश में ही हो जाते हैं लीन
शब्‍दों का ऐसा ही स्‍वभाव है

आकाश एक ताल है
जिससे हमारा पैतृक सम्‍बन्‍ध है
हमारा पाखी मन आकाश से उड़कर
फिरि आकाश में ही आता है
आकाश के रस्‍ते ही विज्ञान के चमत्‍काऱ :
इनसेट, चन्‍द्रयान, मँगल यात्रा
लेकिन मारक मिसाइलों से बेहद ख़फ़ा है अपना आसमान

आकाश एक ताल है
डूबे रहते हैं जिसमें बड़े-बड़े बादलों के पहाड़
और पिघल कर जब-तब धरती पर बरसते हैं

आकाश एक ताल है
धूनी रमाए हुए अपने घाट पर
सत्‍य की शपथ की तरह जो डिगता नहीं कभी । वह
अपने में ही डूबा हुआ । अपने में ही ध्‍यानस्‍थ और अपने में ही
प्रकाशित । उससे जो बोलता-बतियाता है वह भी हँस-बोल
लेता है । नहीं तो रहा आता है वह
महामौन !