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सावन की गंगा / बुद्धिनाथ मिश्र

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सावन की गंगा जैसी
गदरायी तेरी देह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।

मन की नाव बहक जाती
अक्सर जाने किस ओर
पाल बनी जब से तेरी
कोरे आँचल की कोर ।

पग-पग पर टोकता
उभरते भँवरों का सन्देह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।

बड़े-बड़े चेतन मधुकर भी
कर बैठेंगे भूल
अधर बिखेरेंगे तेरे
जब पारिजात के फूल ।

थाले में परिचय के
पनपा है नन्हा-सा नेह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।

सुलगे क्यों न छुअन की
पीड़ा में पल्लव का अंक
काँटों-से भी जहरीले होते
फूलों के डंक ।

तपती रेत डगर की
जलकर मन्मथ हुआ विदेह ।
बिन बरसे न रहेंगे अब
ये काले-काले मेघ ।