भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिछली सर्दी में / शहनाज़ इमरानी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:03, 20 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहनाज़ इमरानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो दिन बहुत अच्छे थे
जब अजनबीपन की ये बाड़
हमारे बीच नहीं उगी थी
इसके लोहे के दाँत
हमारी बातों को नहीं काटते थे
उन दिनों की सर्दी में
मेंरे गर्म कम्बल में तुम्हारे पास
कितने क़िस्से हुआ करते थे
हर लफ़्ज़ का मतलब वही नहीं होता
जो क़िताबे बताती है
लफ़्ज़ तो धोखा होते है
कभी कानों का कभी दिल का
और ख़ामोशी की अँधेरी सुरंग में
काँच सा वक़्त टूटने पर
बाक़ी रह जाती हैं आवाज़े
और उनकी गूँज !