वो जो मर गया / शहनाज़ इमरानी
सरों पर धूप है
वक़्त लिख रहा है इतिहास
कभी पसीने से तर
और कभी ख़ून से
हड्डियों पर चढ़ी खाल जैसी बीवी
आधे नंगे बच्चे और
दिन भर खाट पर पढ़ी खाँसती माँ को
भूख ग़रीबी और बीमारी से तंग आकर
वो गाँव में छोड़ कर
शहर की तरफ़ भाग आया था
दिन के कन्धे पर हाथ रख कर
उठे पाँव
भटकते -भटकते जब जड़ हो गए
रेलवे स्टेशन की एक और ज़िन्दगी
के साथ साँस लेने लगा
शहर में उसे जगह नहीं दी
और जंगल भी उससे छीन लिया
ग़रीबी रेखा को ऊपर-नीचे सरकाकर
उसे नकार दिया गया
जगमगाता रोशनियों से भरा शहर
बाज़ारों में ईमान ख़रीदने वाली दुकानें
मन्दिरों कि घण्टियों और मस्जिदों की अज़ानों
से जागने वाला यह शहर फिर सो जाता है
एक रोटी और घूँट भर पानी
कि माँग भी यहाँ जुर्म है
इस जुर्म कि सज़ा भी मिली
बन्द आँखें अन्दर तक धँसे गाल स्याह होंठ
खेत में खड़े बिजूका की तरह जिस्म
और चिथड़ों से आती बदबू
शहीद होने के लिए सरहद पर मरना ज़रूरी है
और हर धर्म के कुछ निशाँ होते हैं
यह जो मर गया है बग़ैर कोई पहचान के
यह तो लावारिस मुर्दा घर में जाएगा
आधा दिन तो गुज़र गया
मक्खियाँ और चीटियों के साथ
झाड़ू लगाने वाले ने लाश को
दीवार की तरफ खिसका दिया
एक धुन्ध में घिरने लगा था फिर शहर
और लोगों कि रफ़्तार तेज़ होने लगी थी !