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दफ़्तर के बाद-2 / रमेश रंजक
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डूब गई स्याही में
रेशमी पहाड़ी
पूरी हो गई चलो
आज की दिहाड़ी
खुले-खुले अंग फ़ाइलों के
फीतों में कस गए
गूँज उठे छन्द टायरों के
और हम विहँस गए
गन्ध क़ैदख़ाने की
बाँध कर पिछाड़ी