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चन्दनी छाँह में / रमेश रंजक
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ज़िन्दगी दीप की
साधना सीप की
अरगनी बन गई
तन गई रश्मियाँ सिन्धु से द्वार तक
रोशनी के खुले और पिछले सबक
हर मुसीबत मुई
मुस्कुराती हुई
चाँदनी बन गई
डाल कर बाँह में बाँह फिर से हमें
ये हवा ले चली चन्दनी-छाँह में
सिरफिरी घाम की
हर घड़ी शाम की
करधनी बन गई
टूटना अश्रु का थम गया, रुक गया
पर्वती कन्ध पर नील नभ झुक गया
मौन सम्वेदना
गन्ध की चेतना
सनसनी बन गई