एक
मार्च का एक दिन
जा निकला हूँ
समुद्र तक और सुनता हूँ।
बर्फ़ इतनी नीली है, जितना कि आसमान
तड़क रही धूप में
धूप, जो बर्फ़ की पर्त के नीचे भी फुसफसा रही है
एक माइक पर खुदबुदाती, बड़बड़ाती
और लगता है दूर कहीं कोई एक चादर झटक रहा है।
यह सब इतिहासनुमा : अभी, बिल्कुल अभी।
हम निमग्न हैं, हम सुनते हैं।
दो
तीन
(अनुवाद : रमेशचंद्र शाह)