भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जगतमें को‌इ नहिं तेरा रे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:17, 21 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 (राग कान्हरा-तीन ताल)

 जगतमें को‌इ नहिं तेरा रे।
 छोड़ बृथा अभिमान त्याग दे मेरा-मेरा रे॥
 काल-करम बस जग-सराय बिच कीन्हा डेरा रे।
 इस सरायमें सभी मुसाफर, रैन-बसेरा रे॥
 जिस तनको तू सदा सँवारै, साँझ-सबेरा रे।
 एक दिन मरघट पड़े भसमका होकर ढेरा रे॥
 मात-पिता, भ्राता, सुत-बांधव, नारी चेरा रे।
 अंत न होय सहाय, काल जब दैवै घेरा रे॥
 जगका सारा भोग सदा कारन दुख केरा रे।
 भज मन हरिका नाम, पार हो भव-जल बेरा रे॥
 दीनदयालु भक्तञ्वत्सल हरि मालिक तेरा रे।
 दीन होय उनके चरनोंमें कर ले डेरा रे॥