भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भरे रहो तुम सदा हृदय में / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:52, 21 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 (तर्ज लावनी-ताल कहरवा)

 भरे रहो तुम सदा हृदय में, बाहरका हर लो सारा।
 नित्य तुम्हें पाकर अन्तरमें बहती रहे सुधा-धारा॥
 देकर अपना प्रेम-परमधन, चाहे फिर दरिद्र कर दो।
 देकर शाश्वत शान्ति, नित्य सब दिक्‌ दारुण ज्वाला भर दो॥
 खेलो खेल सदा मनमाना, छोड़ो नहीं कभी, प्यारे!
 अपने हाथों सुख दो चाहे हर लो सुख-साधन सारे॥
 निज करसे इच्छानुसार तुम मुझको दुलरा‌ओ-मारो।
 मिले रहो पर सदा, भले तुम मुझे डुबा दो या तारो॥