स्वामी के शुचि चरण-कमल में / हनुमानप्रसाद पोद्दार
(राग वागेश्री-ताल कहरवा)
स्वामी के शुचि चरण-कमल में सादर शीश झुकान्नँ मैं।
दुखियोंके संताप-हरणकी शक्ति विलक्षण पान्नँ मैं॥
दो ऐसा वरदान, दयामय! दीनोंको अपनान्नँ मैं।
सारा सुख दुखियोंको देकर, उनका सुख बन जान्नँ मैं॥
छाता बनकर, मेह-घामसे उनकी देह बचान्नँ मैं।
कंञ्कड़-काँटे लगें नहीं, उनकी जूती बन जान्नँ मैं॥
अंधोंकी लकड़ी बन करके, सीधे मार्ग चलान्नँ मैं।
भटक रहे जो लक्ष्य-भुलाकर, उनको पथ दिखलान्नँ मैं॥
गुण-समूहको प्रकट करूँ, अवगुणको सदा दुरान्नँ मैं।
धागा बनूँ, अन्ग निज देकर, सबके छिद्र छिपान्नँ मैं॥
पुत्रहीनका सुपूत बनकर, उसको सुख पहुँचान्नँ मैं।
जिसके कोई नहीं, उसीका निज जन ही बन जान्नँ मैं॥
जीवनहीन प्राणियोंको, निज जीवन सौंप, जिलान्नँ मैं।
निष्प्राणोंमें प्राण फ़ूँककर, दे अवलब उठान्नँ मैं॥
मूर्छित, तमसाच्छन्न जनोंको देकर बोध जगान्नँ मैं।
ज्ञान-दिवाकरकी किरणोंसे, तमको तुरत मिटान्नँ मैं॥
प्रभुके निर्मल लीला-रसकी सरस रागिनी गान्नँ मैं।
मुरझी हृदय-कुसुम-कलिकाको पूर्णतया विकसान्नँ मैं॥
सूखे नीरस प्राणोंमें रस-सुधा सदा बरसान्नँ मैं।
श्रद्धाकी शुचि सुधा पिलाकर, नित उनको सरसान्नँ मैं॥
गत-विश्वास संशयी पुरुषोंका विश्वास बढ़ान्नँ मैं।
प्रभुकी महिमा सुना-सुनाकर चरण-शरण दिलवान्नँ मैं॥
भयभीतोंको अभय चरणका आश्रय अचिर करान्नँ मैं।
चिदानन्दमय सत्य सनातन निर्भय पद पहुँचान्नँ मैं॥
प्रभुके करुण हृदयके दर्शन दीनोंको करवान्नँ मैं।
अशरण-शरण पतित-पावन प्रभुका संधान बतान्नँ मैं॥
प्रभुकी प्रेम-अमिय-रस-धारा उज्ज्वल अमल बहान्नँ मैं।
काम-स्वार्थका मल धो, माँ धरतीको सफल बनान्नँ मैं॥