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आदर और निरादर / महेश उपाध्याय
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तुम !
लँगड़े हो
एक टाँग पर खड़े रहो
तुम्हारा इसी में
आदर होगा ।
तुम्हारी दोनों आँखें
सलामत हैं
फिर भी तुम सबको
एक ही आँख से देखते हो
तुम्हारा निरादर होगा ।