सबको मिले सुबुद्धि, रहें सब / हनुमानप्रसाद पोद्दार
(राग भैरवी-ताल कहरवा)
सबको मिले सुबुद्धि, रहें सब सबके नित्य सुबन्धु सहर्ष।
पर-सुख-सुखी सभी हों, हर्षित नित्य देखकर पर-उत्कर्ष॥
दुखी-जनोंके दुःख-हरणका बढ़ता रहे नित्य उत्साह।
सहज समर्पित हों तन-मन-धन, बढ़ती रहे त्यागकी चाह॥
बुझे कलहकी आग जगत्में, हो शीतल सुप्रीति-विस्तार।
अनाचार अविचार मिटें सब, भ्रष्टस्नचार-असद् व्यवहार॥
‘राजनीति’ हो धर्मनियन्त्रिंत, हो ‘धन’-’काम’ धर्मसंयुक्त।
प्रभु-पद-पंकज-प्रीति लक्ष्य हो, हो जीवन वासना-विमुक्त॥
जीवमात्रमें आत्मभाव हो, मिटें क्रूरता, हिंसा-पाप।
सबमें मैत्री-करुणा हो, कोई न किसीको दे संताप॥
सभी सदा ही मंगलमय हों, त्रिविध तापका हो परिहार।
अखिल विश्वमें बरसे पावन परम मधुर प्रेमामृतधार॥
रहे सभीकी रति स्वधर्ममें, रहे सदा सबमें शुचि त्याग।
रहें सदा सत्सन्ग-भजनमें, लीलामें शुचि रुचि-अनुराग॥
रहे प्रकृति संयत, हो सारी ऋतुओंका उपयुक्त विकास।
कभी क्षुधा-पीडित प्राणीके हो न स्वास्थ्य-जीवनका नाश॥
धरती प्रचुर अन्न-प्रसविनि हो, वृक्ष करें फल-दान अपार।
गायें मनों दूध दें, घृत दें, यज्ञ-यागका बढ़े प्रसार॥
चोर-डाकुओं, ठगों-उचक्कों का न कहीं भी हो अस्तित्व।
सभी सत्यवादी हों, छीनें कभी न भूल पराया स्वत्व॥
नारी पतिव्रता हों सारी, हों न कभी विधवा, अति दीन।
पुत्र पिता-माता, गुरुजनकी सेवामें सहर्ष हों लीन॥
नित अनाथ-असहाय जनोंकी सेवामें मति रहे अमान।
हो अपमान न कभी किसीका, पाते रहें सभी समान॥
कभी न उपजे मनमें किंञ्चित् सेवाका कदापि अभिमान।
‘हुई समर्पित प्रभुको प्रभुकी वस्तु’-रहे इतना ही भान॥
गो-ब्राह्माण-रक्षाके हित नित रहें सहज न्योछावर प्राण।
करते रहें सभी निज सुख दे, सबका ही अविरत कल्याण॥
रहे एक परमार्थवाद, सब मिटें दूसरे वाद-विवाद।
अग-जग अखिल शान्ति-सुख पायें, मिटें शोक-भ्रम-भीति-विषाद॥
मिटे आशु तम अशुचि, शीघ्र हो शुद्ध ज्योतिका उदय महान्।
सबमें सदा दिखायी दो सर्वत्र तुम्हीं मुझको भगवान्॥
सबका हित, सबकी सेवा नित बने, तुहारे ही प्रीत्यर्थ।
तुम्हीं सभी कुछ रहो, राम! बस, मेरे एक अर्थ-परमार्थ॥
इन्द्रिय सभी त्याग भोगोंको, करें तुहारा ही सभोग।
स्मरण करे मन नित्य तुहारा, रहे बुद्धिका तुममें योग॥
रहे विराग सदा भोगोंसे रहे सदा ही सजग विवेक।
रहे सदा प्रभु-कृपा बरसती, टले न कभी प्रीतिकी टेक॥
रहे सदा रति प्रभु-चरणोंमें, रहे भक्तिगत चित्त अनन्य।
शान्ति-सुधा-सागर-निमग्र अति मधुर साधु-जीवन हो धन्य॥