अव्यवस्थित व्यस्त घोर अशान्त / हनुमानप्रसाद पोद्दार
(राग सोहनी-ताल दादरा)
अव्यवस्थित व्यस्त घोर अशान्त इस जगमें प्रभो!
मैं व्यवस्थित, शान्त नित अव्यस्त हो विचरूँ विभो॥
जिन विदाही व्यसन-कार्य-विचारमें फ़ँसकर सभी।
हो रहे संतप्त, मैं न फ़ँसूँ, प्रभो! उनमें कभी॥
काम-मद-विद्वेष-ईर्ष्या-रागमें अनुराग कर।
हो रहे उद्विग्र सब, वे हों न मुझमें तनिक भर॥
फ़ँस ‘अहं-मम’में निरन्तर नाचते बेताल सब।
मैं नहीं उनमें रहूँ, नाचूँ मिलाकर ताल अब॥
पर नहीं हो तनिक भी अभिमान इसका भूलकर।
भूल जाऊँ मैं नहीं तव कृपा, मदसे फ़ूलकर॥
देख पाऊँ मैं अहैतुक कृपा मुझपर छा रही।
उसीके बल परमसे यह बुद्धि मुझमें आ रही॥
देखकर सबमें तुम्हीं को, हो विनम्र रहूँ सदा।
‘बड़ा’ बनकर किसीका अपमान मैं न करूँ कदा॥
गुन तुहारे दिये जो मुझमें बसें आकर परम।
दुःखसे जलते जगत्को मिले उनसे सुख चरम॥
बन रहूँ नित दास मैं, शुचि सहज ही सेवा करूँ।
परम सेवक रूपमें तव मैं, प्रभो! जीऊँ-मरूँ॥