(राग बहार)
सनातन-सत-चित-आनँद-रूप । अगुण, अज, अव्यय, अलख, अनूप॥
अगोचर, आदि, अनादि, अपार। विश्व-व्यापक, विभु, विश्वाधार॥
न पाता जिनकी कोई थाह। बुद्धि-बल हो जाते गुमराह॥
संत श्रद्धालु, तर्क कर त्याग। सदा भजते मनके अनुराग॥
समझकर विषवत् सारे भोग। त्याग, हो जाते स्वस्थ-निरोग॥
एक, बस, करते प्रियकी चाह। विचरते जगमें बेपरवाह!॥
धरा, धन, धाम, नाम, आराम। सभी कुछ राम विश्व-विश्राम॥
प्रेम-सागरकी तुन्ग तरंग। बाँध मर्यादाका कर भन्ग॥
बहा ले जाती जब श्रुतिधार। संत तब करते प्रेम-पुकार॥
प्रेमबश विह्वल हो श्रीराम। भक्त-मन-रञ्जन अति अभिराम॥
दिव्य मानव-शरीरवर धार। अनोखा, लेते जग अवतार॥
मदन-मन-मोहन, मुनि-मन-हरण। सुरासुर सकल विश्व सुख-करण॥
मधुर मञ्जुल मूरति द्युतिमान। विविध क्रीड़ा करते भगवान॥
दयावश करते जग-उद्धार। प्रेमसे, तथा किसीको मार॥
विविध लीला विशाल शुचि चित्र। अलौकिक सुखकर सभी विचित्र॥
जिन्हें गा-सुनकर मोहागार। सहज होते भव बारिधि पार॥
तोड़ माया-बन्धन जग-जाल। देखते ‘सीय-राम’ सब काल॥
यही सुन्दर मूदु युगल-स्वरूप। दिखाते रहो राम रघु-भूप!॥
‘सकल जग सीय-राममय’ जान। करूँ सबको प्रणाम, तज मान॥