(राग वागेश्री-ताल त्रिताल)
दीन बन्धु हे करुणाकर प्रभु! दे दो मुझे प्राप्ति अनन्य।
शरणागतवत्सल हे मुझको दे निज आश्रय कर दो धन्य॥
देखूँ सदा सभीमें तुमको, करूँ सभीको नमन-प्रणाम।
हो स्वाभाविक हित सबहीका करूँ सदा सेवा निष्काम॥
कभी न व्यापे क्रोध-काम-मद-लोभ-मान-भय-शोक-विषाद।
सदा तुम्हारी बनी रहे प्रिय मुझको एक मधुरतम याद॥
भोगोंमें न खिंचे मन निशिदिन करता रहे तुम्हारा ध्यान।
तुम ही बनो मान-मर्यादा-धन-ऐश्वर्य पवित्र महान॥
एक तुम्हीं बस जीवनमें रह जाओ मेरे जीवन-प्राण।
मरनेपर भी मिलूँ तुम्हीं से तुम्हीं बनो मेरे निर्वाण॥