फसल, औरतें और गीत / प्रमोद कुमार तिवारी
एक बूढ़ी औरत सोह रही है खेत
साथ ही सुरीले कंठ से छीट रही है उसमें
आदिम गीतों के
न पुराने होने वाले कच्चे बीज।
एक आल्हर युवती
रोप रही है धान
साथ ही रोपती जा रही है,
लोकगीतों की हरियाली
खेतों में
नहीं श्रोता चरवाहों के मन में।
गीतों में भरी है कथा
कि कैसे रोपी जाती हैं उसकी सहेलियाँ
नइहर से उखाड़कर
अपेक्षाओं से लदे ससुराल में।
भारी काम के लंबे दर्द को
हर रहा है गीतों का सुरीलापन
मरहम लगा रहे हैं
सदियों की दासता को आवाज़ देनेवाले शब्द।
दोनों औरतों ने पूरा किया काम
अलगाए एक दूसरे के बोझ
फिर दोनों ने सुर मिलाए
ज्यों-ज्यों बढ़ते गए सुर
घटता गया सिर का बोझ
साझी व्यथा ने बढ़ा दिया
करूण स्वरों का सुरीलापन
दोनों औरतों ने बाँट लिया
थोड़ा-थोड़ा हरापन और पकापन
जब वे गाँव में पहुँची तो
बूढ़ी और युवती कम
सखियाँ अधिक थीं
दोनों के चेहरे लग रहे थे
एक से।