भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़हरीला सूनापन / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:47, 29 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश उपाध्याय |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
माना कुछ पास नहीं है अपने
कहने को बातें क्या कम हैं ?
मित्रों में गेन्द-सी उछालेंगे
दो बातें बासी अख़बारों की
माथे पर ग़ाली-सी फेंकेंगे
सौगातें पिछले इतवारों की
देखेंगे कैसे ?
डस पाएगा ज़हरीला सूनापन
संध्या तक इतने हम दम हैं
क्या कम हैं ?
बहसों में टूटेंगी आवाज़ें
यूँ ही दिन बीतेगा
मुफ़्ती जल-पान के सहारे में
(बैठे हैं)
कोई तो हारेगा, जीतेगा
धुँधलापन ओढ़कर चलेंगे घर
रातों को अनसुलझे ग़म हैं
क्या कम हैं ?