भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विषपायी / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:12, 1 सितम्बर 2014 का अवतरण
हम भी विषपायी हैं
हमने जिंदा रहने के लिए जहर पिया है
लेकिन हमारे कंठ पर जहर का
नीला निशान नहीं है
हम नीलकण्ठ नहीं कहलाना चाहते
हमें पसन्द नहीं है ढोंग
जीवन के मंथन में जो अमृत मिला था
उसे देवताओं ने हमसे छीन लिया
वे हमारा अमृत पीकर अमर हो गये हैं
हम अमृत और विष के विवाद में नहीं पड़ना चाहते
भरपूर जीना चाहते हैं जीवन
हमें इन्द्रासन नहीं चाहिए
हमें अप्सराओं के नृत्य में नहीं है दिलचस्पी
उधार का सोमरस पीकर हम डगमगाना नहीं चाहते
तुम्हें तुम्हारा स्वर्ग मुबारक
हम अपने नर्क में खुश हैं
परवरदिगार