भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन घटेंगे / दिनेश सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:16, 7 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जनम के सिरजे हुए दुख
उम्र बन-बनकर कटेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

कुआँ अन्धा बिना पानी
घूमती यादें पुरानी
प्यास का होना वसन्ती
तितलियों से छेड़खानी

झरे फूलों से पहाड़े --
गन्ध के कब तक रटेंगे ?
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

चढ़ गए सारे नसेड़ी
वक़्त की मीनार टेढ़ी
'गिर रही है -- गिर रही है' --
हवाओं ने तान छेड़ी

मचेगी भगदड़ कि कितने स्वप्न
लाशों से पटेंगे ?
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे

परिन्दे फिर भी चमन में
खेत-बागों में कि वन में
चहचहाएँगे
नदी बहती रहेगी उसी धुन में
चप्पुओं के स्वर लहर बनकर
कछारों तक उठेंगे
ज़िन्दगी के दिन घटेंगे