Last modified on 7 सितम्बर 2014, at 03:18

चलो देखें... / दिनेश सिंह

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:18, 7 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चलो देखें,
खिड़कियों से
झाँकती है धूप
उठ जाएँ ।
सुबह की ताज़ी हवा में
हम नदी के साथ
थोड़ा घूम-फिर आएँ !

चलो, देखें,
रात-भर में ओस ने
किस तरह से

आत्म मोती-सा रचा होगा !
फिर ज़रा-सी आहटों में
बिखर जाने पर,
दूब की उन फुनगियों पर
क्या बचा होगा ?

चलो
चलकर रास्ते में पड़े
अन्धे कूप में पत्थर गिराएँ,
रोशनी न सही,
तो आवाज़ ही पैदा करें
कुछ तो जगाएँ !

एक जंगल
अन्धेरे का -- रोशनी का
हर सुबह के वास्ते जंगल ।
कल जहाँ पर जल भरा था
अन्धेरों में
धूप आने पर वहीं दलदल !

चलो,
जंगल में कि दलदल में,
भटकती चीख़ को टेरें, बुलाएँ,
पाँव के नीचे,
खिसकती रेत को छेड़ें,
वहीं पगचिह्न अपने छोड़ आएँ ।