भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमारे बन्धु ! / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:24, 9 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |अनुवादक= |संग्रह=इतिहा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रंगों के झरनों में बह गए हमारे बन्धु !
कहना था और, और कह गए हमारे बन्धु !
चिकने, चालाक, घाघ
लब्ज़ इश्तहारों के
गुलदारी होठों पर
मन्त्र बेसहारों के
गार में इकाई की चर गए हमारे बन्धु !
कैसे-कैसे कमाल कर गए हमारे बन्धु !
खुट्टल हैं, छुट्टल हैं
ताम्बे के सिक्के हैं
बारह में बादशाह
बावन में इक्के हैं
अगर कहीं कीचड़ में सन गए हमारे बन्धु !
कितने-कितने भोले बन गए हमारे बन्धु !