भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोपहर का कबूलनामा / समीह अल कासिम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:18, 10 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीह अल कासिम |अनुवादक= समर खान |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मैंने बोया एक दरख़्त
मैंने नफ़रत की उसके फलों से
मैंने चूल्हे में जलाईं उसकी डालियाँ
मैंने बनाई एक सारंगी
मैंने बजाई एक धुन
मैंने तोड़ दी सारंगी
मैंने खो दिए फल
भूल गया मैं धुन
मैंने...मातम मनाया उस पेड़ का ।