भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नोंच कर पंख / जगदीश पंकज
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:22, 14 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश पंकज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पन्ना बनाया)
नोंच कर पंख, फिर
नभ में उछाला
ज़ोर से जिसको
परिन्दा तैर पाएगा
हवा में
किस तरह से अब
बिछाकर जाल
फैलाकर कहीं पर
लोभ के दाने
शिकारी हैं खड़े
हर ओर अपनी
दृष्टियाँ ताने
पकड़कर क़ैद
पिंजरे में किया
फिर भी कहा गाओ
क्रूर अहसास ही
छलता रहा है
हर सतह से अब
काँपते पैर जब
अपने, करें विश्वास
फिर किस पर
छलावों से घिरे
हैं हम, छिपा है
आहटों में डर
तुम्हारे
अट्टहासों में
हमारे घाव की पीड़ा
कभी प्रतिकार भी लेगी
निकल अपनी
जगह से अब
सुना है उम्र
ज़ालिम की कभी
ज़्यादा नहीं होती
सचाई को दबाने से
नहीं पहचान
वह खोती
समन्दर-न्याय
यह कैसा
हमारी सभ्यता कैसी
विसंगतियाँ मिटाने को
चलें, अगली
सुबह से अब