Last modified on 29 सितम्बर 2014, at 23:13

सॉनेट (गर्व बहुत था...) / कुमार मुकुल

Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:13, 29 सितम्बर 2014 का अवतरण (नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गर्व बहुत था मुझे, कि हूं मैं भी संन्यासी।

मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा

अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि‍ तारक हैं

टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी

मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे

छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।

यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको

ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।


चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।

चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को

आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।

कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह

जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।

नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।

1988