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समय-नदी / संध्या सिंह
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समय-नदी ले गई बहाकर
पर्वत जैसी उम्र ढहाकर
लेकिन छूट गए हैं तट पर
कुछ लम्हें रेतीले
झौकों के संग रह-रह हिलती
ठहरी हुई उमंगें
ठूँठ-वृक्ष पर ज्यों अटकी हों
नाज़ुक चटख पतंगें
बहुत निकाले फँसे स्वप्न पर
ज़िद्दी और हठीले
कुछ साथी सच्चे मोती से
जीवन खारा सागर
रहे डूबते-उतराते हम
शंख-सीपियाँ ला कर
अभिलाषाओं के उपवन को
घेरें तार कँटीले
रूखे सूखे व्यस्त किनारे
लहरें बीते पल की
ज्यों खण्डहर के तहख़ाने में
झलकी रंगमहल की
शब्द गीत के कसे हुए हैं
तार सुरों के ढीले