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स्त्री और समुद्र / राजेश्वर वशिष्ठ

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वह हर शाम आती है
अकेली और उदास
सुनने मेरा कोलाहल
कहने अपने मन की बात
हम घण्टों बतियाते हैं,
पाग़लों की तरह
वह मानती है मुझे अपना दोस्त !

उसकी जेब में होता है
एक पुराना रूमाल
जिससे चिपकी है
उसके प्रेमी के आँसुओं की गन्ध
उसने बताया था
वह रोया था एक दिन
बिना कुछ कहे
शायद वैसे ही
जैसे बरसता है कोई बादल
धूप में, चुपचाप
और गीली भी नहीं होती धरती !

वह आत्मीयता से बैठती है
मेरी लहरों के क़रीब
और देखने लगती है साँझ का सूरज
उसकी आँखों में चमकते हैं
दुख की रोशनाई से लिखे
कितने ही छन्द
जिन्हें पढ़ते हुए हम रोते हैं
साथ-साथ

मूर्छित होकर
तेज़ी से गिरता है सूरज
और लाल हो जाती है
आसमान की आँख

वह लौटती है अपने घर की ओर
करीने से सम्भालते हुए
रूमाल में बँधा
अपना पुराना दुख

मैं उससे कह भी नहीं पाता
मेरा भी एक दुख है
तुम्हारे ही दुख-सा
जिसे मैं भूल जाता हूँ
तुम्हारी उपस्थिति में
या तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में

मैं जानता हूँ---
स्त्री और समुद्र के दुख
कभी ख़त्म नहीं होते इस सृष्टि में
वे भटकते ही रहते हैं
अन्धेरे-उजाले के साथ !