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आइना बनने का सपना छोड़ दूँ / रविकांत अनमोल

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सोचता हूँ पत्थरों के दौर में
आइना बनने का सपना छोड़ दूँ

ये महकते फूल कहते हैं मुझे
ख़ार होकर भी मैं चुभना छोड़ दूँ

चाहता हूँ अब कि पत्थर हो रहूँ
भाव के धारों में बहना छोड़ दूँ

जो मिले उसको महब्बत से मिलूँ
हां किसी की राह तकना छोड़ दूँ

जी रहूँ या मर रहूँ इक मर्तबा
हर घड़ी का जीना मरना छोड़ दूँ

ज़न्दगी का लुत्फ़ है इसमें कि अब
ज़न्दगी से प्यार करना छोड़ दूँ