Last modified on 10 नवम्बर 2014, at 13:51

आइना बनने का सपना छोड़ दूँ / रविकांत अनमोल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:51, 10 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविकांत अनमोल |संग्रह=टहलते-टहलत...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सोचता हूँ पत्थरों के दौर में
आइना बनने का सपना छोड़ दूँ

ये महकते फूल कहते हैं मुझे
ख़ार होकर भी मैं चुभना छोड़ दूँ

चाहता हूँ अब कि पत्थर हो रहूँ
भाव के धारों में बहना छोड़ दूँ

जो मिले उसको महब्बत से मिलूँ
हां किसी की राह तकना छोड़ दूँ

जी रहूँ या मर रहूँ इक मर्तबा
हर घड़ी का जीना मरना छोड़ दूँ

ज़न्दगी का लुत्फ़ है इसमें कि अब
ज़न्दगी से प्यार करना छोड़ दूँ