शैशव / विमल राजस्थानी
देव-कन्या,यक्ष-पुत्री या कि कोई किन्नरी हैं
कौन सद्योजात यह,क्या व्योम से उतरी परी हैं
यह किलकती कांति,यह सौन्दर्य-धारा
स्वर्ण-सा नयन खंजन से, अलौकिक रूप प्यारा
अरूण पतले होठ,स्मिति-कोष शत-शत है निछावर
लाल पद-तल‘औ‘ हथेली रची हो जैसे महावर
चंद्र को लज्जित करे ऐसा विभासित दिव्य आनन
पुलक रंध्रो में सृजन करते सुगंधित श्वाँस के स्वन
कौन है,यह कौन गुंजित प्रश्न,उतर कौन देगा ?
बालिका अपनी कहे,सौभाग्य कौन लेगा ?
प्रेम का प्रतिदान अपना यह कह सके,साहस किसे है ?
क्लीव है,यदि प्रेम से प्यारा नहीं अपयश जिसे है
वासना की आग का ही धर्म बस,वह जानता हैं
सत्य को स्वीकार करने का नहीं हठ ठानता हैं
घोर लिप्सा,रूप-रस कौमार्य-सुख की पालता हैं
भींच चुटकी में किसी नन्हीं कली को डालता हैं
और जब चीत्कार उसकी रूप धर आती धरा पर
रेत का बन कर घराैंदा बिखर जाता भरभरा कर
वासना की वहिन् वाले दृग,धरे काली हथेली
छोड़ देता है तरी को सिन्धु-लहरों पर अकेली
अबस-बेबस तरी लहरें लीलने को दौड़ती हैं
तक्ष्किाएं फनफना फन फूत्कारें छोड़ती हैं
हेरती सूने दृगों से तक्षको की बाँबियों को
सौंप देती पाप का शून्य जंगल,झाड़ियों को
किरण,प्रस्नुत-स्तनी की कोख से छिटकी हुई हैं
शरण भू-नभ पर न,परवश अधर में अटकी हुई हैं
कौन इस अज्ञात कुल की कली को पाले-सँभाले ?
रक्त छाती का पिला कर,क्रोड़ में अपने बिठा ले
यह अशुभ पहार ंदेवो का कि नर की कालिमा है़!
या कि कुन्ती-गर्भ जैसी सूर्य की द्युति,लालिमा है!
हैं अनेकों प्रश्न,इनके कौन उतर दे सकेगा ?
रूप की इस प्रखरता का वेग क्या रोके, रूकेगा ?
कौन इसको मंदिर-देहरी पर से उठा ले
कौन इस विद्युत-प्रभा को नयन की पुतली बना ले
प्रश्न यह सारे नगर पर मेघ-सा मँडरा रहा हैं
तर्क सारे व्यर्थ,स्तभित,चकित,जो भी जहाँ है
बात श्रुति-पट तक नृपति के गयी उड़ती-सी अचानक
स्वप्न देखा था नृपति ने रात में कोई भयानक
चित्त था उद्विग्न,फिर भी बात ऐसी ही बड़ी थी
नृपति के सम्मुख उपस्थित एक निर्णायक घड़ी थी
जो निराश्रित है,नही जिसका यहाँ कोई सहारा
दुखी हो जिसने नियंता को,करूण स्वर से पुकारा
नृपति प्रतिनिधि उसी सत्ता का धरा पर क्या नहीं है ?
एक की क्या बात,सारी प्रजा का पालक वही है
जुटे चिन्तावेश्म में आमात्य,सेनापति,सभासद
प्रश्न था अद्भुत,समस्या थी जटिल-सी वेदनाप्रद
व्यक्त की चिन्ता नृपति ने-‘कौन है वह अधम,पापी!
कौन है वह नर-पशु कि जो भागा,छिपा मुख,उत्कलापी!!
कल्पना में भी न ऐसा आज तक आया अनय था
सत्य का वर्चस्व शाश्वत,शील मर्यादित,अभय था
नहीं मेरे राज्य में अनय कौंधा कभी था
मुँह छिपा कर धर्म यों लेटा नहीं औंधा कभी-था
सह्य मुझको नहीं टीका कलुष की इस कालिमा का
कौन है वह क्लीव जिसने है लजाया दूध माँ का
त्वरित मेरे सामने उसको उपस्थित किया जाये
दंड जिससे क्रूरतम उस ह्निंश पशु को दिया जाये‘
किन्तु,थी तत्काल सम्मुख शिशु-व्यवस्था की समस्या
दृष्टि नीची किये चिन्तित मंत्रियों का दल अवश-सा
मंत्रणा कुछ और घहरी, नाम सहसा एक दमका
बात सब को भा गयी,घुल-मिल गया मंतव्य सबका
‘एक मात्र मदालसा ही राज्य जो नर्तकी है
योग्य है इस कार्य के सब भाँति,यद्यपि वह थकी है
पर नही व्यवधान उसकी आयु पालन में बनेगी
प्यार में उसके निरंतर बालिका निशि-दिन सनेगी
वहन होगा राज्य-कोषागार से व्यय-भार सारा‘
दिख गया सबको अचानक शून्य नभ में एक तारा