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ख़ून की ख़ुश्बू / सत्यपाल आनंद

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ख़ून की ख़ुश्बू उड़ी तो
ख़ुद-कुशी चीख़ी कि मैं ही ज़िंदगी हूँ
आओ अब इस वस्ल की साअत को चूमो
मर गई थी जीते-जी मैं
और तुम जीने की ख़ातिर
लम्हा लम्हा मर रहे थे
ख़ुद मसीहा भी थे और बीमार भी थे
(और ख़ुद अपनी जराहत के लिए तय्यार भी थे)

आओ अब जी भर के सूँघो
ख़ून की ख़ुश्बू कि मैं ही ज़िंदगी हूँ
मेरे होंटों से पियो आओ, मुझे बाहों में ले लो
वस्ल की साअत यही है
तुम फ़क़त जीने की कोशिश कर रहे थे
जाँ-कनी के ला-शुऊरी ख़्वाब से ले कर विलादत
के शुऊरी लम्हा-ए-बे-दार तक !