सूरज सारा शहर डराता रहता है
पथरीली सड़कों पे दरिया प्यासा है
नींद हमारी भीड़ में हँसती रहती है
जंगल अपनी ख़ामोशी में उलझा है
धरती और आकाश की दुनिया में जीवन
दो तूफ़ानों में क़ैदी कश्ती सा है
हवा परिंदों को ले कर किस देस गई
मैदानों में पेड़ों का सन्नाटा है
रातों की सरगोशी बनती हूँ ‘अंजुम’
ख़्वाबों में बादल सा उड़ता रहता है