भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी कबाड़िया बनकर कभी नबी बनकर / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:35, 11 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पन्ना बनाया)
यह ग़ज़ल कृष्ण कल्पित के नाम
कभी कबाड़िया बनकर कभी नबी बनकर ।
मैं अपने गाँव में आया हूँ अजनबी बनकर ।।
कभी मकान के मलबे में मुझको कुछ न मिला,
कभी चुभी है कोई कील रौशनी बनकर ।
अजब है याद के जंगल में आँसुओं का हुजूम,
कभी खुला है कोई रास्ता हँसी बनकर ।
मैं जिसको मान चुका था कभी की सूख चुकी,
वो डाल मुझसे लिपटती है फिर हरी बनकर ।
अजब हैं दिल के मसाइल किसी से क्या कहिए,
छलक उठा है मेरा दर्द ख़ामुशी बनकर ।
मैं इसपे नाज़ करूँ या शरम से डूब मरूँ
तमाम ज़िन्दगी काटी है आदमी बनकर ।।