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ख़ला-नवर्दी / रियाज़ लतीफ़
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ये किस ने मिरे जिस्म की तारीख उलट दी ?
साँसों की ज़मीं पर,
इक खोई हुई साअत-ए-मिस्मार के कत्बे!
रफ़्तार के
गुफ़्तार के
इज़हार के कत्बे!
बे-ख़्वाब सितारों पे जिए जा रहा हूँ मैं
ना-पैद समुंदर को पिए जा रहा हूँ मैं
सदियों के कई रंग जो तहलील हैं मुझ में
जिद्दत की दराड़ों से टपकते हैं अभी तक
ना-पैद समुंदर से छलकते हैं अभी तक
बे-ख़्वाब सितारों में चमकते हैं अभी तक
रूहों के जुनूँ में,
महदूद सुकूँ में,
कत्बे उभर आए हैं मिरे ख़ूँ की तड़प से
मुझ में मिरे अज्दाद भटकते हैं अभी तक