भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वीरान ख़्वाहिश / रियाज़ लतीफ़
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:23, 20 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रियाज़ लतीफ़ |संग्रह= }} {{KKCatNazm}} <poem> मि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मिरे अंदर
घना जंगल
घने अंजान जंगल में
लचक शाख़ों की वहशत में
शजर के पत्ते पत्ते पर
मुनक़्क़श अन-गिनत सदियाँ
ज़मानों के बदन उर्यां
अज़ल की ज़द, अबद की हद
खंडर, मीनार और गुम्बद
रवाँ ला-सम्त तहज़ीबें
नए इम्कान की साँसें, कभी अपनी गिरफ़्तों में
गिरफ़्तों से कभी बाहर
लहू, आफ़ाक़, इक दरिया
बदन लम्हात का सहरा
जहाँ दुनिया भटकती थी
वो सब ख़ामोश और तन्हा
इसी सहरा के सन्नाटे को नग़्मों से भिगोना है
कहीं दूर जा कर
ख़ुद को ख़ुद ही में डुबोना है
किसी दिन अपने जंगल से लिपट के खुल के रोना है