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उखड़ते ख़ेमों का दर्द / मज़हर इमाम

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कहीं भी जा-ए-अमाँ नहीं है
न रौशनी में न तीरगी में
न ज़िंदगी में न ख़ुद-कुशी में

अक़ीदे ज़ख़्मों से चूर पैहम कराहते हैं
यक़ीन की साँस उखड़ चली है
जमील ख़्वाबों के चेहरा-ए-ग़मज़दा से नासूर रिस रहा है
अज़ीज़ क़द्रों पे जाँ-कनी की गिरफ़्त मज़बूत हो गई है
पंतग की तरह कट चुके हैं तमाम रिश्‍ते
जो आदमी को क़रीब करते थे आदमी से
दिलों में क़ौस-ए-क़ुज़ह की अंगड़ाइयाँ जिन से टूटती थीं
न फ़र्द ही का मकाँ सलामत
न इजतिमाई वजूद ही ज़ेर साएबाँ है
कोई ख़ुदा है तो वो कहाँ है ?
कोई ख़ुदा है तो वो कहाँ है ?
मुहीब तूफ़ाँ मुहीब-तर है
पहाड़ तक रेत की तरह उड़ रहे हैं
बस एक आवाज़ गूँजती है
‘‘मुझे बचाओ मुझे बचाओ’’
मगर कहीं भी अमाँ नहीं है
जो अपनी कश्‍ती पे बच रहेगा
वही अलैहिस्सलाम होगा