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ऊधो साँसों का इकतारा / आनन्दी सहाय शुक्ल

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ऊधो साँसों का इकतारा
बजता रहे तार मत टूटे गाता रहे बनजारा ।।

यह घर यह परिवार मोह की
मदिरा के हैं प्याले
मित्र शत्रु-नगरी के वासी
अनगिन मकड़ी जाले
इसमें उलझा प्राण इसे यह सब कुछ कितना प्यारा ।।

कूचे गलियाँ सड़कें भीड़ें
रिश्ता कितना गहरा
लोहू कर्दम लथपथ साँसें
स्वर्गिक नर्क सुनहरा
फिर-फिर जनम मिले फिर भोगें फिर चूमें अंगारा ।।

बाणों की शय्या पर लेटा
फिर भी मृत्यु न चाहे
इस इच्छा इस आकर्षण को
रोये या कि सराहे
क्रूर कल्पना कितनी तट की बना रहे मँझधारा ।।