भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऊधो टूटेगी तटबन्ध / आनन्दी सहाय शुक्ल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:02, 6 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनन्दी सहाय शुक्ल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ऊधो टूटेगी तटबन्ध ।।
इतने बादर इतना पानी अन्तर्यामी अन्ध ।।
हाड़-माँस माटी का पिंजर
बिजली वज्र रकीब
पीड़ा के गज अनथक झूमें
अत्याचार नकीब
मुरली फूँक रही है पावक कोयला सातों रन्ध ।।
रोम-रोम पर्याय क्षवण के
सबका कथ्य सुना
दर्दमन्द करुणार्द्र प्राण ने
रपटिल पन्थ चुना
रिसे मवाद स्नायुमण्डल में पसरे पाटल गन्ध ।।
एक अकण्ठित साथी मिलता
नग्र निर्वसन नाते
छाती पर यह शिला न होती
हानि लाभ बँट जाते
यों तो साथ कारवाँ पूरा लेकिन सभी कबन्ध ।।