Last modified on 7 जनवरी 2015, at 14:48

या पूरी पृथ्वी / मनोज कुमार झा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:48, 7 जनवरी 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दूब क्यों इतनी कड़ी नींद के भी तलुए को छीलती
       इतना घना जंगल दिखता नहीं एक भी पका फल
       किस घाट का पानी इसमें डाभ नहीं कर रहा ढबढब
इतने रंग चकमक मगर बन नहीं पाता इन्द्रधनुष क्या रंगों के दूध फटे हुए ।
       घर ही तो छोड़ा एक खुली तो है पूरी पृथ्वी
पर कहीं भी गाड़ूँ खम्भा वहीं तारे आसमान में
            अकबक आँख का गोला ।
कहीं है थोड़ी जगह जहाँ सुखा सकूँ इस पुरानी थकान में भीगे बाल
       या पूरी पृथ्वी माघ की बारिश में भींगती बकरी कान पटपटाती ।