भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ताकत / विजेन्द्र

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:40, 11 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजेन्द्र |संग्रह=भीगे डैनों वाल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तना है फटा तिरपाल
उसी की छांव में बैठा
गाँठता जूते-
धूप है जेठ की
जलाती आँच सी
क्या छिपा है
उसकी अतल गहराइयों में
यह कौन कूते।
आया लू का अंधड़
थपेड़ा देकर गया
कनपुटी पर-
कहता है किसान से
लो, पहनो
हुआ है पुराना नया
जब भी फुरसत हुयी
सूँतता बीड़ी
देखता हर तरफ
पिच रहीं कीड़ी।
मारता है टाँके
जैसे सीं रहा हो
अपने समय को
उँगलियों के संकेत है बाँके।
आँखे बहुत छोटी-छोटी
पर बड़ी भेदक
जुबान में कड़क
अपने काम की
भरे विष्वास की
लगता समय बदला
पहचानता है।
उठी आ रही है ताकत
अंधेरे से उजोले की तरफ
अंदर से जानता है।